ट्रेड यूनियनों का दो दिवसीय राष्ट्रीय बंदी और कुछ अनसुलझे सवाल।

ट्रेड यूनियनों का दो दिवसीय राष्ट्रीय बंदी और कुछ  अनसुलझे सवाल

ट्रेड यूनियनों का दो दिवसीय राष्ट्रीय बंदी और कुछ अनसुलझे सवाल।

राज कुमार शाही /आपको मालूम है कि 28-29 मार्च को दो दिवसीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन समूहों के द्वारा आहूत आंदोलन का आंशिक असर सामान्य जीवन पर देखने को मिला। वैसे भी देश के संगठित क्षेत्र में काम करने वाले विभिन्न हिस्सों की तादाद लगातार कम होती जा रही है। साथ ही साथ श्रम कानूनों में पूंजीपति वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर किए गए बदलाव और ट्रेड यूनियन समूहों का सांगठनिक एवं सांस्कृतिक मोर्चा पर सिर्फ वेतन वृद्धि और अन्य आर्थिक मामलों तक अपने आंदोलन को सीमित करने वाले रस्म अदायगी वाले आंदोलन से आम मजदूर वर्ग जो असंगठित क्षेत्र के दायरे में विषम परिस्थितियों को झेलने को मजबूर है अपने को दूर कर रखा है। हमारे देश में असंगठित क्षेत्र के दायरे में आने वाले मजदूर वर्ग के व्यापक हिस्सा में कोई खास संगठन नहीं है जो थोड़े बहुत संगठन हैं भी तो वो अपने मूल उद्देश्यों से काफी हद तक पीछे हैं।

मजदूर वर्ग के व्यापक हिस्सा को आंदोलनों में सक्रिय रूप से कैसे शामिल किया जाए इसके लिए व्यापक वर्गीय चेतना और दायित्वों को पूरा करने का ऐतिहासिक काम करने की जरूरत है। सार्वजनिक क्षेत्र के दायरे में आने वाले संस्थानों में जो ट्रेड यूनियन आंदोलन काम कर रही है उसके प्रति भी मजदूर वर्ग का नजरिया बहुत सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करने वाला नहीं है। विभिन्न भागों में बंटी हुई कम्युनिस्ट पार्टियों का संगठन भी इसके लिए जवाबदेह है। मजदूर वर्ग में क्रांतिकारी बदलाव एवं चेतना विकसित करने के लिए सचमुच एक क्रांतिकारी चेतना से लैस कम्युनिस्ट पार्टी का होना जरूरी है। इसके अभाव में गैर वर्गीय चेतना एवं पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के कुप्रभावों से मजदूर वर्ग को बचा पाना मुश्किल है।

चुनाव में जाति और धर्म आधारित राजनीति के प्रभाव में मजदूर वर्ग का व्यापक हिस्सा का चला जाना हमारी कमजोरियों एवं नाकामी का एक उदाहरण है। दुनिया के मजदूरों एक हो का नारा बुलंद करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियों को अपने एजेंडे को लागू करने के लिए अपने सिद्धांतों को मजदूर वर्ग के विभिन्न हिस्सों में व्यापक पैमाने पर भागीदारी सुनिश्चित कर एक सुसंगत नीति का अनुसरण करना होगा। अन्यथा इतिहास इन्हें माफ़ नहीं करेगी और एक समय खुद अपने को अप्रासंगिक बन कर रह जाएगा। साथ ही साथ पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का विकल्प बनने के लिए तैयार होना होगा अगर ऐसा संभव नहीं हो सका तो अराजकता और अंधकार में पूरा समाज डूब जाएगा और इसके लिए सबसे अधिक जवाबदेह प्रगतिशील ताकतें होगी।


आज निजीकरण की नीतियों के पक्ष में कौन खड़ा है? एक एक करके सभी सरकारी संस्थाओं को निजीकरण कर दिया जा रहा है परन्तु कोई व्यापक पैमाने पर प्रतिरोध खड़ा करने की समाज में कोई विशेष सुगबुगाहट क्यों नहीं है? जाति आधारित राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों एवं कारपोरेट घरानों के इशारे पर नाच रहे पूंजीवादी दलों का निजीकरण पर क्या रूख़ है? खुद एक क्षेत्र का मजदूर वर्ग दूसरे विभागों एवं अन्य क्षेत्रों के मजदूर वर्ग के हितों के साथ कनेक्ट नहीं हो पा रहा है आखिर इसकेे लिए कौन दोषी है?


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